ज्ञानो गुरुमुख सिह मसाफिर
राष्ट्रीय जीवन-चरित माला
ज्ञानी गुरुमुख सिह मुसाफिर
कर्त्तार सिह दुग्गल
अनुवादक बालकराम नागर
नेशनल बुक टुस्ट, इंडिया
पहला संस्करण 985 (शक 906)
तीसरी आवृत्ति 7990 (शक 92)
(8 कर्त्तार सिंह दुगल, 985
रु. 46.00
एांधां 0णण्पांता आएं शैएडशी (उर79)
निदेशक, नेशनल बुक ट्रस्ट, इंडिया, ए-5 ग्रीन पार्क, नयी दिल्ली-006 द्वारा प्रकाशित।
आमख
संसार में हर बड़े आदमी की जीवनी आनेवाली पीढ़ियों के लिए प्रेरणा का स्रोत होती है । बड़े आदमी अच्छे भी होते हैं, बड़े आदमी बुरे भी होते हैं। केवल बड़ा होना ही. अच्छा होना नहीं होता । '
ज्ञानी गुरुमुख सिंह मुसाफिर उन हस्तियों में से हैं, जिनमें केवल बड़ाई ही बड़ाई है । उनका आकर्षक व्यक्तित्व ईश्वरीय देन थी। उनका निर्मल स्वभाव, देश-प्रेम, साहित्य-अनुराग, कुछ ऐसे गुण हैं, जो पहली ही मुलाकात में दूसरे को मोह लेते थे । उनकी सामाजिक, राजनीतिक और धामिक सूझ-बूझ हर श्रेणी और हर विचारधारा के लोगों को प्रेरित करती थी, अपना दीवाना बना लेती थी ।
मैंने अपनी जिंदगी में कभी उन्हें थका हुआ, ऊबा हुआ या चिढ़ा हुआ नहीं देखा । खबरें अच्छी भी आतीं, बुरी खबरें भी आतीं, खुशी भी होती, गम भी होते, लेकिन “मुसाफिर” हमेशा एक जैसे हंसमुख और प्रसन्न रहने वाले खूबसूरत इंसान थे ।
ज्ञानी गुरुमुख सिंह मुसाफिर की ज़िंदगी के कई पहलू हैं, जिन पर बहुत कुछ लिखा जा सकता है। मैं आशा करता हूं, आनेवाले समय में उनके जीवन के बारे में और विस्तार से लिखा जायेगा ।
सरदार कर््तार सिंह दुग्गल ने, जो एक चोटी के लेखक ओर विचारक हैं, यह पुस्तक लिखकर एक विशेष कतंव्य निभाया है। प्यारे और माननीय “मुसाफिर | की जिंदगी से देश की नई नस्ल को परिचित कराया है। सरदार कर्त्तरि सिंह दुग्गल हमारे अग्रणी लेखकों में से तो हैं ही, साथ ही उन्होंने यह प्रमाणित कर दिया है कि वे एक श्रेष्ठ मित्र भी हैं। मैं धन्यवाद देता हूं सरदार दुग्गल को ।
वर्ष 985 । | ज्ञानी' जेलसिंह राष्ट्रपति, भारत सरकार
दो शब्द
» अपने जीवन में मैंने ढेर सारी किताबें लिखी हैं, लेकिन इस छोटी-सी पुस्तक की रचना करके मुझे खास खशी हो रही है । जैसे किसी ने अपना ऋण चुका दिया हो ।
ु ज्ञानी गुरुमुख सिंह “मुसाफिर” को मेरे साहित्यिक विवेक पर पूरी निष्ठा थी । पिछले दिनों तो जब कभी कोई रचना वे प्रकाशित करते, उनकी इच्छा होती कि उसके संबंध में कुछ न कुछ भूमिका के रूप में मैं लिखें । जहां तक संभव होता मैं ऐसा कस्ता; ऐसा करके खुशी प्राप्त करता । ऐसा करते हुए मेरी ज्यादा दिल- चस्पी यही होती कि ज्ञानी जी का राजनीतिक स्वरूप कहीं उनके साहित्यकार के बिब को धूमिल न कर रहा हो। अगर ऐसा हुआ तो यह उनके साथ अन्याय होगा ।,यह .मेरी धारणा रहो है ।
<त््त्य से कुछ मास पूर्व उन्होंने अपनी अप्रकाशित कहानियों तथा अपनी अप्रकाशित कविताओं का एक-एक संग्रह तेयार किया, और दोनों पांडुलिपियां मेरे पास छोड़ गए । उनका कहानी-संग्रह 'उखार पार' ती हमने उनके जीवनकाल में छपवा लिया, लेकिन कविता संग्रह “दूर नेड़े” छपने तक उन्होने प्रतीक्षा नहीं की । “दूर नेड़े” अब उनके मरणोपरांत नवयुग द्वारा अब प्रकाशित हुआ है।
इस पुस्तक के लिए ज्ञानी जी की रचनाओं का चयन करते समय मेरी कोशिश यही थी कि ज्यादातर ऐसी चीजें शामिल की जाएं, जिनमें उनकी निजी जिंदगी की झलक मिलती हो । इस तरह यह भाग, एक प्रकार से उनकी जीवन- गाथा का एक पूरक कहा जा सकता है ।
“ज्ञानी गुरुमुख सिंह “मुसाफिर” से मैं पहली बार 940 ई० में मिला था । तब से निरन्तर उनके प्यार की स्निग्धता मुझे मिलती रही । ज्ञानी जी एक बहुमुखी प्रतिभा के स्वामी थे। उनकी जीवनी और अधिक खोज-बीन तथा ओर अधिक
. विस्तार से लिखी जानी चाहिए । यह काम मैं तब तक के लिए आगे डाल रहा हूं, जब मैं सोचता हूं, मेरे पास, कुछ और ज्यादा फुरसत होगी । 4 २ मैं हमेशा ज्ञानी जी को उकसाता रहा कि वे अपनी आत्म-कथा लिख डालें । अपने जीवन की कहानी लिखना शुरू कर भी दिया था उन्होंने, मगर पूरा नहीं कर सके उसे । उनकी राजनीतिक गतिविधियां ही कुछ इस प्रकार को थीं ।
| दो शब्द
इस पुस्तक में इस्तेमाल की गई तसवीरों के लिए मैं ज्ञानी जी की सुपुत्री श्रीमती जोगिन्दर संत का आभारी हूं | गुरुमुख सिंह 'मुसाफिर' मेमोरियल ट्रस्ट के सेक्रेटरी सरदार मुबारक सिंह ने कुछ चित्र और ब्लाक हमें छापने के लिए दिए, जिनके लिए उनका भी बहुत-बहुत धन्यवाद ।
पी-7, होजखास, कर्त्तार सिंह दुग्गल नई दिल्ली-]]00।6
विषय-सूची
शानी गुरुमुख सिंह 'मुसाफिर वा हक ] कहानियां 328 डे 29 कविताएं १०५ म् स्क 67 गजल हल दर के ४7 रुबाईयां पेश बढ मन 9] कुछ अन्य कविताओं का हिन्दी रूपान्तर ब 93
उपसंहार ; ले हक ]4
|
चित्र-क्रम
श्रीमती मुसाफिर और यू० एन० ढेबर के साथ
2 मुसाफिर मैमोरियल हाल, चंडीगढ़
3
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प्रधान मंत्री श्रीमती इंदिरा गांधी को अपनी नव प्रकाशित पुस्तक भेंट करते हुए ।
सुबह का अखबार देख रहे हैं ।
कवि मुसाफिर
संसद भवन जाने की तैयारी में
नाश्ता करते हुए
केन्द्रीय पंजाबी सभा के मंच पर सरदार गुरुबख्शसिंह (प्रीत लड़ी) उंनके बायें हाथ बठे हैं
पंडित जवाहर लाल नेहरू और श्रीमती इंदिरा गांधी के साथ
ज्ञानी जेलसिंह और कामराज के साथ
वरिष्ठ पत्रकार लाला जगंतनारायण के साथ
]965 के भारत-पाक संघषं में सीमा-द्षेत्र के दोरे पर
मास्टर तारासिह जी के साथ
लेनिनग्राड में एक भारतीय प्रतिनिधि मंडल के साथ
पंजाब के मुख्यमंत्री
पंडित नेहरू और अन्य भारतीय नेताओं के साथ
डाक्टर ज्ञाकिर हुसेन और श्री लालबहादुर शास्त्री के साथ
अरदास में
और फिर वे चल बसे
ज्ञानो गुरुमुख सिह “मुसाफिर”'
ज्ञानी गुरुमुख सिंह “मुसाफिर”, जिन्हें छोटे, बड़े सब प्यार से, “ज्ञानी जी” या “मुसाफिर जी” कह कर बलाते थे, रविवार, 8 जनवरी |976 को हमारे बीच नहीं रहे । एक अग्रणी राजनीतिज्ञ. जो कई वर्ष तक पंजाब प्रदेश कांग्रेस के अध्यक्ष रहे, पंजाब सरकार के मुख्य-मंत्री बने, स्वतंत्र भारत में लोक रुभा के बहुत समय तक सदस्य चुने जाते रहे । अपने अंतिम श्वास तक सजनात्मक लेखक वे पहले थे, और कुछ बाद में । मृत्यु से कुछ दिन पूर्व, दूरदर्शन पर एक भेंट-वार्ता में मुझसे बातचीत करते हुए उन्होंने कहा था--
“राजनीतिज्ञ मैं हूं नहीं। देश में हालात कुछ ऐसे थे कि जिन दिनों मुझ में कुछ करने की हिम्मत थी, राजनीतिक गतिविधियां बड़े जोरों पर थीं । परिस्थि- तियों ने मुझे राजनीति में कूद पड़ने पर विवश कर दिया । वैसे मेरी रुचि साहित्य में है। कविता और कहानी लिखने में, मैं ज्यादा खुशी अनुभव करता हूं, विशेषकर अ'जकल । जैल की जिंदगी अगर राजनीतिक गतिविधियों में गिनी जाए, तो इस राजनीति ने मेरी साहित्यिक प्रतिभा निखारने में, मेरी मदद की है। राजनीतिक जिम्मेदारियों ने रुकावट डाली है, “लीडरी दी फिक” शीष॑क कविता में मैंने लिखा है ।
काव दे आकाश दी जे शुद्ध हवा तु साणनी तां लोडर दे टोईयां दी छोड़ मिट॒टी छाणनी (जो तुम कविता के आकाश को शुद्ध हवा का आनन्द लेना चाहते हो तो राजनीति की धूल फॉकना छोड़ दो ।)
एक ओर प्रमाण भी है। राजनीतिक गुत्थी सुलझानी पड़ जाए तो मैं उकताहट महसूस करता हूं। लिखने पर आ जाऊं तो चाहे सारी रात गुजर जाए, थकावट महसूस नहीं करता ।”
वे इतनी जल्दी, इस तरह चूपके से चले जाएंगे, किसी को गुमान तक नहीं था। वतंमान राष्ट्रपति, ज्ञानी जेलसिंह, जो तब पंजाब के मुख्य मंत्री थे; तथा कुछ अन्य मित्रों ने रात का खाना उनके साथ सर सोभासिंह के यहां खाया । आधी रात को उन्हें बड़े जोर का दिल का दौरा पड़ा । डाक्टर दौड़े आये । लेकिन उनके जाने
2 ज्ञानी गुरुमुख सिंह मुसाफिर
का समय आ चका था । ज्ञानी जी स्वयं इस आकस्मिक अंत के लिए तैयार नहीं थे । इसका प्रमाण उनके कविता-संग्रह दूर नेड़े” की भूमिका में मिलता है जो अपनी मृत्यु से दो-चार दिन पूर्व ही उन्होंने लिखी थी । ।
“उपर्यक्त शीषंक की मेरी कविताओं की पुस्तक काफी समय के अस्तराल के बाद छप रही है, लेकिन इसे मेरी अंतिम पुस्तक नहीं समझा जाना चाहिए | यह मेरा अनुमान है । इस किताब में छपी एक ग़जल का मकता है ।
हुन॒ मसां किधरे असानूं आई है जोवन दी जाच आपणी इह कलपना है, बसे कुझ इतबार नहों ।
(अब मुश्किल से कहीं जीने का सलीका आया है मुझे । कल्पना कहूंगा इसे मैं अपनी, यकीन तो नहीं है वैसे ।)
यदि जीने का ही ढंग अब आया है तो समझा जा सकता है कि लिखने पढ़ने का तरीका भी अभी आया है। फारसी की कहावत है “पीर शो बिआमोज"' बढ़ापा आने पर भी सीखते जाओ। सीखने के लिए उम्र की कोई कैद नहीं । सच तो यह है कि सीखने की मेरी ललक मिटी नहीं बल्कि और भी विकसित होती जा रही है ।
मैंने अभी कहा कि ज्ञानी जी इस आकस्मिक अंत के लिए तैयार नहीं थे। शायद मैं गलत हो सकता हूं । इसलिए कि उन्होंने यह क्यों कहा था--'““आपनी इह कलपना है, वेसे कुछ इतबार नहीं” यही नहीं, अपनी अन्तिम कविता में जो अधूरी ही रह गई, वे कहते हैं :
पक्की उमरे
हौर भी उलटे
पकक्कदे जाण
विचार :
रब्ध ना करे
जे में ना रिहा
जाण हुब्ब संसार । (दुनों सुहावा बाण)
(पक्की उम्र में, एक परिवतंन अनुभव करता हूं अपनी सोच में । ईश्वर न करे, मैं न रहा अगर, तो एक प्रलय टूट पड़ेगी ।)
ज्ञानी जी को मालूम था कि उनका शरीर जवाब देता जा रहा है | कुछ दिन पहले उन्हें दिल क्रा दौरा पड़ चुका था। कभी-कभी एक धुकधुकी सी लगी रहती
+ दूर पास ।
ज्ञानी गुरुमुख सिंह “मुसाफिर” 4
थी उन्हें । इस बात का हमेशा डर बना रहता था कि अगर कहीं उनके डाक्टरों को पता चल गया तो उन्हें बिस्तर पर लिटा देंगे और पूर्ण-विश्राम का परामणशं देंगे । यह ज्ञानी जी को स्वीकार नहीं था । जब तक उनकी जान में जान थी वे लोक-सेवा और लिखने-पढ़ने में डबे रहना चाहते थे ।
ज्ञानी गुरुमुख सिंह “मुसाफिर” का जन्म अविभाजित पंजाब के कंबलपुर जिले के अधवाल गांव में हुआ-पोठोहार की उस धरती पर, जिसे उनकी पीढ़ी के भाई जोधर्सिह, प्रिसपल तेजासिह, प्रोफेसर मोहनसिह जैसे अनेक साहित्यकारों पर गव॑ है। उनके पिता सरदार सुजानसिह एक धर्मात्मा पुरुष थे। थोड़ी-बहुत खेती बाड़ी भी करते थे । बचपन में जब भी फुरसत मिलती ज्ञानी जी उनकी मदद करते। उनकी प्रारंभिक शिक्षा गांव के डिस्ट्रिक्ट-बो्ड सकल में हुई । फिर जे० वी० की परीक्षा पास करके वे प्राथमिक कक्षाओं को पढ़ाने के सुयोग्य समझे जाने लगे। कुछ दिनों बाद ज्ञानी हीरा सिंह 'ददं', एक अन्य प्रमुख पंजाबी कवि के साथ उन्होंने पोठोहार के गांव कल्लर में सकल मास्टरी शुरू कर दी। तब ज्ञानी जी की आयु केवल 9 वर्ष की थी । इस स्कूल के हैडमास्टर प्रसिद्ध अकाली नेता मास्टर तारा सिंह थे। स्कूल की नौकरी के कुछ दिन बाद, ज्ञानी जी के आत्म सम्मान ने उन्हें यह फैसला करने पर मजबूर किया कि वे ऊंची पढ़ाई करके अपनी शैक्षिक योग्बता को बढ़ाएंगे । इस संबंध में एक मनोरंजक घटना स्वयं ज्ञानी जी ने मुझे सुनाई थी :
इस सकल में भरती होने के बाद ज्ञानी जी से कहा गया कि वे कच्ची-पहली कक्षा को पढ़ाएं । युवा 'मुसाफिर' को यह मंजूर नहीं था। अपनी योग्यता के बारे में उनकी निजी राय इससे बेहतर थी । “तो फिर आप हैडमास्टरी संभाल लें,” यह जान कर मास्टर तारासिह ने व्यंग्य किया । मास्टर जी ने जब यह कहा तो उस समय उनके कमरे में ज्ञानी हीरासिह दर्द” भी थे। बाहर आकर दोनों ने फंसला किया कि अपनी योग्यता को बढ़ाने के लिए वे उच्च शिक्षा प्राप्त करेगे । यह तो संभव था नहीं कि अपनी नौकरी छोड़ कर कालेज में दाखिला ले लें । इसलिए यह तय पाया कि पहले वे ज्ञानी की परीक्षा पास करेंगे, और फिर बी० ए० के लिए प्राइवेट तौर पर बंठेंगे। ऐसा ही उन्होंने किया । ज्ञानी पास करके वे ज्ञानी' के नाम से बुलाये जाने लगे । फिर जब बाकायदा तौर पर उन्होंने कविता करना शुरू कर दिया तब ज्ञानी गुरुमुख सिंह तो 'मुसाफिर' नाम से जाने जाने लगे। और ज्ञानी ही रासिह ने उपनाम दर्द! अपना लिया ।
ऐसा लगता है “मुसाफिर” जी जसे कोमल-हृदय कलाकार तथा असाधारण प्रतिभा के नवयुवक का दूर, अलग-थलग पड़े एक गांव में ज्यादा देर टिके रहना संभव नहीं था। 9]9 में जलियांवाला बाग कांड ने उन्हें जैसे झकझोर कर रख दिया । उनकी अंतरात्मा ने जैसे विद्रोह कर दिया हो । अपना देश जब विदेशी शासन की
4 ज्ञानी गुरुमुख सिह मुसाफिर
बेड़ियों से मुक्त होने के लिए जूझ रहां था, तो वे एक कोने में पड़े किसी गांव में बच्चों को पढ़ा कर कंसे संतुष्ट रह सकते थे ? और फिर तोन साल बाद ]922 में जब ठोक जलियांवाला बाग जैसा कांड ननकाना-साहब में भी हुआ तो ज्ञानी जी कमरकस कर, देश की आजादी की .लड़ाई में कद पड़े । ननकाना साहब में, फिरंगी की शह पर कोई दो सौ सिखों को शहीद कर दिया गया था । गुरुनानक के श्रद्धालुओं को जिंदा जला दिया गया था ।
पंजाब के अधिकांश सिख नेताओं की तरह ज्ञानी जी भी राष्ट्रीय राजनीति में अकाली आंदोलन की माफंत आए । अकाली आंदोलन में ही ज्ञानी जी पहली बार नजरबंद किए गये । और फिर देश के स्वतंत्रता-संग्राम में, इस तरह की जेल यात्राओं का जसे एक अटूट क्रम शुरू हो गया । 930 में वे अकाल तख्त के जत्मैदार चने गये। सिख पंथ में इससे ऊंची कोई पदवो नहीं । फिर कुछ दिनों के लिए वे सिख गुरुद्वारा प्रबंधक कमेटी के सैक्रेटरी भी रहे । मास्टर तारासिह के अलावा जिन अग्रणी सिख नेताओं के साथ कंधे से कंधा मिलाकर ज्ञानी जी ने आजादी की लड़ाई में भाग लिया, उनमें से कुछ के नाम इस प्रकार हैं : बाबा खड़गसिंह, ईशर सिंह “मझैल,” अमरसिह “झव्बाल”, जत्थेदार मोहन सिंह, प्रताप सिंह “करों”, मोहन सिंह “जोश” दर्शनसिह 'फेरूमान', ऊधम सिंह '"नागोके', गोपालर्तिह 'कौमी', तेजासिंह स्वतंत्र” और मास्टर महताबर्सिह ।
बलिदान की भावना से ओत-प्रोत, दढ संकल्पी ज्ञानी गुरुमुखर्सिह “'मुसाफिर' इस बात के लिए कभी तैयार नहीं हुए कि जेल में बन्द होने के दौरान वे पैरोल पर बाहर आ जाएं, चाहे उनकी जेल यात्रा के दिनों में उनका पांच बरस का बच्चा जाता रहा, एक बेटी चल बसी, और फिर उनके पिता उनकी राह देखते-देखते स्वर्ग सिधार गए । उनके वृद्ध पिता हमेशा उनसे कहा करते थे “यार ! कब खिसकेंगे ये अंग्रेज यहां से ?” कि फिरंगी कब हमारे देश से जायेगा ताकि उनका बेटा उनके पास रह सके । एक के बाद एक, उनकी जेल यात्राओं का सिलसिला जब चल रहा था, तो अत्यंत अभावों और गरीबी में उनकी पत्नी बच्चों को पालती रही, पर क्या मजाल जो कभी कोई शिकायत की हो। उन दिनों कोई न कोई आन्दोलन चलता ही रहता था। जो भी आन्दोलन शुरू किया जाता ज्ञानी जी की धर-पकड़ हो कर रहती ।
महात्मा गांधी की उन पर बड़ी आस्था थी। बापू प्रायः उन्हें परामर्श के लिए बलाते, विशेषकर पंजाब की समस्याओं के बारे में । बरसों कांग्रेस हाई कमान के सदस्य रहने के कारण, वे जवाहर लाल नेहरू के भी बहुत निकट थे। नेहरू के प्रति उनकी अगाध श्रद्धा थी । जवाहर लाल भी ज्ञानी जी की बड़ी कद्र करते थे । ज्ञानी जी ने महात्मा गांधी और जवाहरलाल नेहरू की अपनी स्मृतियों को दो पुस्तकों
ज्ञानी गुरुमुख सिंह “मुसाफिर” 5
में संजोया है। ये हैं-वैखिआ सुणिआं गांधी (देखा सना गांधी) और वेखिआ सुणिआं नेहरू (देखा सुना नेहरू ) ।
जेल यात्रा के दौरान, अन्य राजनीतिक नेताओं की तरह वे किताबें पढ़ते या कविता-कहानी आदि लिखते। इन्हीं दिनों उन्होंने गांधी-गीता और बाईवेज्ञ आफ बलैसडनस नामक पुस्तकों का पंजाबी में अनुवाद किया ।
देश के स्वतंत्र होने पर ज्ञानी जी को दिल्ली में देश की संविधान सभा का सदस्य बनाया गया । उसके बाद वे संसद के सदस्य चुने गये । कुछ महीनें छोड़कर, जब कि वे पंजाब के मुख्य मंत्री थे, ज्ञानी जी लगातार संसद-सदस्य निर्वाचित होते रहे । राजनीतिक नेता के रूप में ]952 के चुनाव में, अपने दल की पंजाब में जीत का श्रेय केवल उन्हीं को जाता है। एक राजनीतिज्ञ के रूप में इस जीत ने उनकी साख को और भी बढ़ाया ।
लेकिन जिस बात के लिए पंजाबियों की कई पीढ़ियां ज्ञानी जी को याद करेंगी, वह है देश के बंटवारे के कारण लुटे-पिटे शरणाथियों के पुनर्वास में उनका योगदान । चाहे कोई पश्चिमी पंजाब से आया था या उत्तर पश्चिमी सामा-प्रांत से या फिर सिंध से, ज्ञानी जी ने हर किसी की तन-मन से सहायता की । ज्ञानी जी के निवास स्थान, 2] फिरोजशाह रोड, नई दिल्ली पर शरणाथ्थियों की बाढ़-सी आई रहती । . बिस्थापितों के प्रति उनकी व्यग्रता और करुणाभाव को देख-देख कर मैं चकित होता रहता । जिनका कोई मददगार नहीं था वे सहायता के लिए ज्ञानी जी के पास आते । और क्या मजाल जो कोई कभी निराश लौटा हो, खाली हाथ लौटा हो ।
देश की आजादी के बाद कितने ही वर्ष ज्ञानी जी पंजाब के राजनीतिक आकाश पर उज्ज्वल नक्षत्र की तरह चमकते रहे । कई बार पंजाब प्रदेश कांग्रेस के वे निविरोध अध्यक्ष चुने गये । और इस प्रकार पंजाब को उन्होंने एक स्थिर नेतृत्व प्रदान किया। लाला लाजपतराय के बाद, कहा जा सकता है, कि ज्ञानी गुरुमुख सिंह 'मुसाफिर' अपने समय में पजाब के एकाकी नेता थे, जिन्हें राष्ट्रीय स्तर के राजनीतिक नेता के रूप में माना गया ।
चाहे मन से वे कट्टर कांग्रेसी थे (कांग्रेस पार्टी में वे ।922 में शामिल हुए) लेकिन यह बात नहीं कि अन्य दलों के व्यक्तियों के साथ उनकी मित्रता नहीं थी । उनके दोस्त अकाली भी थे और कम्युनिस्ट भी । कई प्रगतिशील लेखकों से उनकी गहरी मित्रता थी। इनमें फेज ओर अली सरदार जाफरी, मोहनसिंह और सन्त सिंह सेखों, मुल्कराज आनन्द और सज्जाद जही र, बलराज साहनी और भीष्म साहनी शामिल हैं । अन्तर्राष्ट्रीय शांति सम्मेलन और प्रगतिशील लेखकों की विश्व-स्तरीय सभाओं में वे एक से अधिक बार सम्मिलित हुए ।
सर-सपाटे के इच्छुक, ज्ञानी जी काफी दुनिया घूमे थे । विश्व के कोने-कोने
6 .... ज्ञानी गुरुमुख सिंह मुसाफिर
में उनके प्रशंसक और उनसे परिचय रखने वाले मौजूद हैं । इनमें लेखक भी हैं और कलाकार भी, बूढ़े भी हैं और जवान भी । वे ताश खेलने के बड़े शौकीन थे | जहां तक संभव हो पाता, शाम को क्लब में वे जरूर जाते । एक बार मैं उनके यहां ठहरा हुआ था। मेरी आदत है कि भोर होने से पहले मैं उठ जाता हूं। उस दिन सुबह जब मैं मुंह-अंधेरे उठा तो मैंने देखा, ज्ञानी जी अपने जूतों के तसमें खोल रहे थे । “आप सैर करके लौट भी आए ?” यह कहते हुए मैं गुसलखाने में चला गया । उस दिन, सुबह नाश्ते की मेज पर बंठे हुए ज्ञानी जी ने चुपके से मेरे कान में कहा, “तब मैं क्लब से ताश खेलकर लोटा था,” मैं उनके मुंह की ओर देखता रह गया ।
ज्ञानी गुरुमुख सिंह 'मुसाफिर' का राजनीतिक जीवन-काल भारत के इतिहास में बडा कठिन दौर था। पहले आजादी के लिए संघर्ष, फिर देश का बंटवारा, शरणाथियों का पुनर्वास और फिर नये भारत की सुदृढ़ नींव रखना । हर दौर में, हर चुनौती में, ज्ञानी जी सदा आगे रहे । अपने चेहरे पर कभी उन्होंने उकताहट या घबराहट नहीं आने दी । हर जिम्मेदारी को हंसते-खेलते निभाते गये । कभी किसी ने उनको नाराज होते नहीं देखा, उतावले होते नहीं देखा । कोई खीझ नहीं, किसी से कोई गिला या शिकायत नहीं । कोई भी; किसी भी समय, किसी तरह की समस्या लेकर उनके घर जा सकता था । एक बार श्री अजीत प्रसाद ने, जो उन दिनों केन्द्रीय सरकार में पुनर्वास विभाग के मंत्री थे, ज्ञानी जी को एक फ्लैट आवंटित करने की इच्छा प्रकट की । “बस यह आखिरी फ्ल॑ट है दिल्ली में, खास तौर पर आपके लिए मैंने बचा कर रखा हुआ है,” मंत्री ने कहा। उस दिन, घर लौटने पर ज्ञानी जी अपनी पत्नी से इस बारे में बात कर रहे थे कि उनकी जान-पहचान का कोई शरणार्थी भी उस समय उनके पास बठा सुन रहा था। अगले दिन वह अजीतप्रसाद के नाम, ज्ञानी जी की ओर से एक पत्र टाइप कराकर ले आया जिसमें लिखा था--“जो फ्लैट आपने मुझे देने की इच्छा प्रकट की थी उसे इस व्यक्ति को, जो आपके पास यह चिट्ठी ला रहा है, आवंटित कर दें ।” ज्ञानी जी ने बिना देखे पत्र पर हस्ताक्षर कर दिए । अजीत प्रसाद ने जब चिट्ठी पढ़ी तो अवाक रह गये । जिन दिनों मैं नेशनल बुक ट्रस्ट का निदेशक था, ट्रस्ट में कोई जगह खाली हुई । इस नौकरी के लिए जो आवेदन पत्र आए उनमें तीन प्राथियों के लिए ज्ञानी जी ने सिफारिश को थी । यह देख कर मुझे बड़ी हँसी आई । ज्ञानी जी को टेलीफोन पर मैंने कहा कि हमारे पास जगह एक उम्मीदवार की है और आपने तीन के बारे में सिफारिश कर रखी है । मेरी बात सुन कर कहने लगे, “मैंने अपना काम किया है, आप जैसा उचित समझते हैं,अपना काम करें ।” और हँस कर उन्होंने मेरी दुविधा का हल निकाल दिया ।
एक राजनीतिक नेता के रूप में नि:सन्देह उनकी देन महत्वपूर्ण है, लेकिन
जानी गुरुमुख सिह “मुसाफिर” 7
ज्ञानी गुरुमुख सिह 'मुसाफिर' ने एक लेखक के रूप में भी पंजाबी साहित्य में अपनी अलग जगह बना ली है। कवि और कहानी लेखक की हैसियत से उन्हें चिरकाल तक याद किया जाता रहेगा । अपना साहित्यिक जीवन उन्होने एक कवि के रूप में आरंभ किया, लेकिन फिर एक समय आया जब कहानियां लिखना उन्हें ज्यादा पसंद आने लगा । उनके नो कहानी संग्रह हैं--वकक््खरी दुनिया, (अलग दुनिया) आल्लण दे बोट, (नीड के नवजात शिशु) कंधा बोल पईआं (और दीवारें बोल पड़ी) ; सत्ताई जनवरी (सत्ताईस जनचरी ), अल्लावाले (अल्लाह के बन्दे); ग्रुटार, सब इच्छा (सब ठीक है) सस्ता तमाशा और उरवार पार (आर-पार)। इसी प्रकार नौ ही उनके कविता संग्रह थे सबर दे बाण (सब्र के वाण); प्रेम बान, जीवन पंथ (जीवन पंथ); मुसाकरियां (मुसाफिर का चिन्तन), दूटूटे खंभ (टूटे पंख), काव-सुनेहे (काव्य-संदेश ) सहिज-सेती, वकक््खरा वक््खरा कतरा कतरा (अलग-अलग ), बंद-बूंद, और दूर-नेड़े (द्र-पास) ।
इसके अलावा उनको कुछ अन्य सुपरिचित रचनाएं हैं--वेखिआ सुणिआ गांधी, (देखा सुना गांधी ), वेखिआ सुणिआ नेहरू (देखा सुना नेहरू), बागी जरनैल (बिद्रोही सेनापति ) । उनके द्वारा अनूदित सामग्री में गांधी-गीता और आनन्द मार्ग - अधिक प्रसिद्ध हैं । हे
एक और बड़ा काम जो ज्ञानी जी ने बिना किसी बाहरी सहायता के अपने हाथों में लिया--वह था देश के स्वतंत्रता संग्राम में बीसवीं सदी के शहीदों का जीवन-वृत्तांत । इसका पहला खंड 968 में प्रकाशित हुआ | बाकी सामग्री को पंजाबी विश्वविद्यालय प्रकाशित कर रहा है ।
इसके अलावा उन्होंने अपनी आत्मकथा लिखनी शुरू की थी | जो पूरी नही हो सकी और अभी तक भअप्रकाशित पड़ी है ।
सामाजिक और राजनीतिक दृष्टिकोण से ज्ञानी जी की डायरियां अधिक महत्वपूर्ण हैं जिन्हें प्रकाशित करना अभी उचित नहीं समझा गया। कई वर्ष तक नियमित रूप से ज्ञानी जी अपनी डायरी लिखते रहे । पहले उर्दू में लिखते थे, फिर पंजाबी में लिखना शुरू कर दिया । इन रोजुनामचों में उन्होंने अपने समकालीनों पर महत्वपूर्ण प्रकाश डाला है । पिछले कई वर्षों की गतिविधियों के बारे में इन डायरियो में अमृल्य जानकारी भरी पड़ी है। जब कोई लेखक ज्ञानी ग्रुरुमुख जैसा ईमानदार इंसान हो तो इस तरह की सामग्री का मूल्य और भी बढ़ जाता है। ज्ञानी जी का जीवन काल हमारे इतिहास में एक कड़े संघर्ष का समय था । इस तरह के दौर के बारे में एक कोमल हृदय कलाकार की प्रतिक्रिया इतिहासकारों के लिए जानकारी की खान सिद्ध होगी । अब इन डायरियों को नेहरू मेमोरियल ट्रस्ट की लायखब्रेरी में सुरक्षित रखा जा रहा है।
है ज्ञानी गुरुमुख सिह मुसाफिर
ज्ञानी गुरुमु्खासह 'मुसाफिर' की साहित्यिक देन का मूल्यांकन उनकी मृत्यु के बाद इतनी जल्दी करना शायद ठीक नहीं होगा । ज्ञानी जी के बारे में यह और भी कठिन है क्योंकि उनके राजनीतिक व्यक्ितत्व की प्रतिच्छाया उनके भीतर के लेखक के जीवन पर अभी तक काफी गाढ़ी है |
कई बार उनके प्रशंसकों को विश्वास न होता हो कि एक दशक से ज्यादा समय तक पंजाब कांग्रेस के अध्यक्ष पद पर आरूढ़ व्यक्ति अपनी भाषा का प्रमुख कवि और कहानीकार भी हो सकता था और कि वह अपनी सुबहें जवाहर लाल नेहरू के साथ मिल कर देश की जटिल समस्याओं को सुलझाने में गुजारता, और शामें हजारासिह 'मुश्ताक' और तारासिह 'कामिल' जसे कवियों के साथ कवि- सम्मेलनो में ।
यही कारण था कि ज्ञानी जी को जब भी कोई कहानी-संग्रह प्रकाशित करना होता उसके बारे में दो-चार शब्द मैं जरूर लिखता ताकि इस तथ्य को उभारा जा सके कि ज्ञानी गुरुमुखर्सिह 'मुसाफिर' चाहे प्रमुख राजनीतिक नेता थे लेकिन उसके साथ-साथ वे एक साहित्यकार भी थे। उनके मरणोपरांत जब उनके कहानी-संग्रह “उरवार परवार” को साहित्य अकादमी का पुरस्कार दिया गया तो मुझे ऐसा लगा जैसे ज्ञानी जी के बारे में मेरे सारे दावे गलत नही थे ! इसी प्रकार ज्ञानी जी की कहानियों के बारे में बार-बार लिखने का एक और भी कारण था । वास्तव में एक निजी कारण था । कई वर्ष पूर्व लाहोर में जब ज्ञानी जी ने अपना पहला कहानी संग्रह प्रकाशित करने का फैसला किया, तो उनके मित्र एवं प्रकाशक सरदार मुबारक सिंह ने अनुरोध किया कि मैं उस संग्रह के बारे में कुछ शब्द भूमिका के तौर पर लिखूं । यह सोच कर कि लघु-कथा एक उन्नत कला शैली है, जो फलागें भरती कहां से कहां जा पहुंची है, उसे एक राजनीतिक नेता कैसे अपना सकता है, मैंने सरदार मुबारकर्मिह को टाल दिया ।
प्र जब 'वक््खरी दुनिया,' ज्ञानी युरुमुखसिह 'मुसाफिर का यह कहानी-संग्रह छप के आया तो मुझे बहुत ज्यादा शर्म महसूस हुई। इस संग्रह की कहानियां हर पक्ष से सफल थीं । ज्ञानी जी का लिखने का ढंग नवीनतम था और जो कुछ वे कह रहे थे वह सचमुच मौलिक था । इन कहानियों में जेल के जीवन का उस तरह का रोचक वर्णन केवल ज्ञानी जी ही कर सकते थे। एक और तो जैल-अधिकारियों की निर्मेमतता तथा अत्याचार, और दूसरी ओर देश-भक्तों का बेजोड़ साहस और बलिदान । ये कहानियां हमारे साहित्य में एक अलग स्थान रखती हैं। इसी तरह 'आल्हणे दे बोट' जैसी कहानियों में जैलों में सड़ रहे देशभक््तों के घरों में, उनकी अनुपस्थिति में उनके परिवार पर टूटी पड़ रही मुसीबतों का हृदय विदारक चित्रण है । ज्ञानी जी के अपने परिवार के एक से ज्यादा सदस्य उनकी जेल यात्रा के दौरान
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काल का ग्रास हो गए । उनकी जवान-जहान बेटी गंभीर रूप से बीमार थी पर उसने यह कभी नहीं चाहा कि उसके पिता फिरंगी सरकार से आज्ञा लेकर उससे मिलने के लिए जेल से बाहर आएं । आत्म-सम्मान की प्रतिमूर्ति यह लड़की अपने प्यारे पिता का मुंह देखे बिना इस दुनिया से चल बसी ।
ज्ञानी गुरुमुखसिह 'मुसाफिर' एक लोक-प्रिय नेता थे । अपने आस-पास का उन्हें गहरा अनुभव था । एक साहित्यकार होने के नाते उनकी सदा यह कोशिश रहती कि नवीन साहित्यिक अभिरुचि के साथ कदम मिला कर चर्लें | वे कई प्रगति- शील और नये लेखकों के निजी दोस्त थे चाहे वह मोहनसिह रहे हों, चाहे शिव कुमार बटालवी, चाहे गुरु बख्शसिह या फिर उपन्यासकार नानकसिह ।
जब भाई साहब भाई वोरसिह जी का दाह-संस्कार हुआ, ज्ञानी जी स्वयं वहां उपस्थित थे । “ऐसा लगता था जैसे फूलों को दोनों बाजुओं में समेट कर भर कर कोई अग्नि के हवाले कर रहा हो ।” ज्ञानीजी ने मुझे बताया । उन जसे कोमल- हृदय व्यक्ति पर इस घटना का बहुत गहरा प्रभाव हुआ प्रतीत होता था । “'मुसाफिर' के भीतर का कहानीकार हर किसी से पूरा न्याय करता था चाहे कहानी किसान की हो, चाहे किसी मजदूर की, चाहे सड़क पर दिखाई दिए किसी विकलांग की हो, चाहे उनसे मिलने के लिए आए हुए किसी शरणार्थी की । चाहे किसी निधन की हो, चाहे किसी बिगड़े रईस की । उनकी कहानियों में प्रायः लोक-कथाओं की सादगी दिखाई देती है। ऐसा लगता है जसे शुरू में ही वे सारी कहानी खोल दे रहे हों । फिर भी कहानी के दौरान वे पाठक की दिलचस्पी को बनाए रखते हैं। इसका रहस्य उनके संरचना-शिल्प की सहजता और उनके कथन की ईमानदारी में निहित है । यहा कुछ तो हीर-वारिसशाह में देखने को आता है, और ठीक यही कुछ प्रसिद्ध जमंन नाटककार बरेशूट कर रहा प्रतीत होता है ।
ज्ञानी जी कहानी या कविता की विधा में इस तरह के प्रयोग कर सकते थे क्योंकि इससे पहले 8 कविता ऑर कहानो की परम्परागत विधाजं में अच्छी निपुणता प्राप्त कर चुके थ । पहले विधा के अनुशासन को उन्होंने अपनाया, फिर उस पर प्रयोग किए, और इन प्रयोगों में उन्होंने सराहनीय सफलता! प्राप्त की । कहानो की विधा में उनकी अन्य विशेषता है वह आत्मनियंत्रण जिससे वे अपनी बात कहते है। किसी बात के विस्तार में जाते हुए ऐसा प्रतीत नहीं होने देते ज॑से उसे तूल दे रहे हों। जहां एक चोट काफी है, क्या मजाल जो वहां दूसरी चोट करें। उनको अभिव्यक्ति में सांकेतिकता पाई जाती है और प्राय: वे प्रतीकों का सहारा ले रहे होते हैं। उनके जीवन का अनुभव इतना व्यापक था कि प्रभावोत्पादकता के लिए परिस्थितियों के सादृश्य की कमी उन्हें कभो महसूस नहीं हुई । एक धारणा को एक से अधिक घटनाओं के द्वारा सिद्ध करने में वे अपना जोड़ नहीं रखंते । उनकी
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कहानी पढ़ते-पढ़ते मुझे तो कदम कदम पर कई कहानियां गर्दन उचकाती हुई दिखाई देती हैं । एक महान कलाकार का गुण था ज्ञानी जी में, कि वे सदा अपने ऊपर हँस सकते थे । अपनी पत्नी तक को भी इस मामले में बच निकलने नहीं देते थे । उनकी सहानुभूति सदा गरीब और लाचार से होती, पीड़ित और पिछड़े-वर्ग से होती । 'खसमा खाणे' (अभिशप्त कहीं के) नामक कहानी इसका एक उदाहरण है। शरणार्थी अपने नेता को हर तरह की समस्याओं में उलझाए रखते . हैं। दिन-रात उसे चैन नहीं लेने देते । न ढंग-से खा ही सकता है, न आराम से सो पाता हैं। नेता की पत्नी परेशान है। उसका ध॑ैयं जाता रहा है। “खसमा खाणे” “खसमा खाणे” कहती रहती है। आखिर हारकर वह गरीब शरणाथ्ियों को घर में नहीं घुसने देती । इसी प्रकार एक दिन वह कई शरणा्थियों को निराश वापस लौटा देती है। उस शाम कुछ धनी लोग उनके यहां आ जाते हैं। उन्हें उसके पति की सिफारिश की जरूरत है। जिस शहर में सिफारिश करवानी है, वह तो कई मील दूर है। तो फिर क्या ? उन लोगों के पास उनकी कार है। कार में बिठा कर ले जायेंगे । नेता की पत्नी को कोई आपत्ति नहीं है। पर कोई सौ मील दूर स्थित शहर में जब उनका काम बन जाता है,तो नेता के धनवान मुलाकाती उसे वहां ज्यों का त्यों छोड़ कर स्वयं किसी और काम पर निकल जाते है । बेचारा नेता रात की गाड़ी पकड़ कर अपने शहर पहुंचता है। सदियों के दिन है। सारी रात, किसी भारी लफड़े के अभाव में वह ठिठुरता रहता है। अगली सुबह इन अमीर लोगों के व्यवहार से विक्षुब्ध यह नेता जब अपने शहर पहुंचता है, तो रेलवे स्टेशन से बाहर कदम रखते ही, उसे एक गरीब शरणार्थी टैक्सी ड्राइवर अपनी टेक्सी में बिठा लेता है। अपना कम्बल उसे ओढ़ने के लिए देता है और बड़े आदर और बडे प्यार के साथ उसे उसकी कोठी पर पहुंचा आता है। जब उसकी पत्नी को इस पूरे किस्से का पता चलता है,तो वह फँंसला नहीं कर पाती कि असली 'खसमा खाणे' कोन है । ज्ञानी जी अपनी कहानियों में अपने दल की सरकार तक को माफ नहीं करते । जब भी उन्हें कहीं कोई कमी या भूल नज़र आती है, वे अपनी सरकार और अपने दल की बेधड़क खबर लेते है। सत्ताई जनवरी” शीषंक से अपनी एक प्रसिद्ध कहानी में वे दिल्ली में होने वाली गणतंत्र दिवस परेड पर एक तीखा व्यंग करते हैं । उस बर्ष ब्रिटेन की महाराणी गणतंत्र दिवस समारोह की विशेष अतिथि थीं । जमादार झंडू ओर नानू अपने कई ओर साथियों के साथ सत्ताइस जनवरी की सुबह, गणतंत्र-दिवस-समा रोह के तमाशबीनों का फँलाया हुआ कूड़ा उठा रहे हैं । गणतंत्र दिवस से एक दिन पूर्व भी सफाई करने के लिए वहां पर वे मोजूद थे । अब गणतंत्र- दिवस-समारोह के 'तमाशे' के बाद फिर हाजिर हैं,ताकि इंडियागेट के घास के
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मैदानों को बुहार दें । लेकिन गणतंत्र दिवस की परेड के अवसर पर वे कहीं भी नजर नहीं आये । परेड को देखने के लिए तो पास की जरूरत होती है, या फिर ठंड में सारी रात जागरण करना पड़ता है,ताकि ठीक-ठाक अच्छी-सी किसी जगह पर जमकर' आदमी बंठ सके ।
ज्ञानी जी ने अपना साहित्यिक जीवन एक कवि के रूप में शुरू किया था । आखिरी दम तक वे कविता लिखते रहे । वे अब तक एक प्रमुख कवि गिने जाते हैं। फिर एक ऐसा समय भी आया जब अपनी कहानियों को वे अधिक महत्ता देने लगे थे । कहा नियां लिखने में उन्हें ज्यादा मजा आने लगा था । ऐसा प्रतीत होता है कि उनके भीतर का कवि कहानियों में अपनी अभिव्यक्ति पाने लगा । कहीं कहीं उनकी कहानियां कविता के रंग में डूबी हुई होती हैं- एक अद्भुत बारीकी, गठन, प्रतीकात्मकता, ओर गीतात्मकता लिए हुए। प्रायः उनकी कहानियों में संगीत की कोई घुन गुंजती सुनाई देने लगती है, उनका कथ्य, लय में बंधा सा चलता जाता है । सरदार कर्णजीतसिह को एक भेंट में ज्ञानी जी ने कहा था--“मैं समझता हूं, मैं कहानी में ज्यादा सफल हूं। पर कहानी में भी कविता का रंग न आये तो मेरी तसलल्ली नहीं होती ।”
ज्ञानी जी ने जब कहानी के क्षेत्र में प्रवेश किया, पंजाबी कहानी तब तक काफी आगे निकल चुकी थी। नानक सिंह 'ताश के पत्ते! नामक कहानी लिख चुके थे। सुजानसिह की कहानी “रास लीला' छप चुकी थी। गुरुबख्शसिह की लम्बी कहानी '“अनब्याही मां! लोकप्रिय हो चुकी थी । और संतर्सिह की कहानी 'पेमी दे न्याने! (पेमी के बच्चे) की चारों ओर चर्चा थी। हमारे निकट पड़ोस में कृष्ण चन्द्र और राजेन्द्रसिह बेदी, सआदत हसन मंटो और उपेन्द्रताथ अश्क' धड़ा-धड़ कहानियां लिख रहे थे । [94! में अकाली पत्रिका के संपादक के नाते 'सर्वेर-सार' की समीक्षा करते हुए ज्ञानी जी ने लिखा था “ये कहानियां कविता जंसी हैं ।” बेशक ज्ञानी जी को “अच्छी कहानी और जो अच्छी नहीं हैं! का अंतर मालूम था । इसलिए यह कहना शायद ठीक नहीं होगा कि ज्ञानी गुरुमुख सिंह 'मुसाफिर' को कहानीकार के रूप में मात्र आख्यान-लेखक से शुरूआत करके प्रयोगात्मक कहानी लिखने का पूरे का पूरा सफर तय करना पड़ा । ज्ञानीजी की कई आरंभिक कहानियां जैसे “सम इच्छा,” (सब ठीक है) 'बागी दी धी' (बागो की बेटी), 'रेशमी लीडा' (रेशमी वस्त्र) आदि उतनी ही सफल हैं जितनी उनकी बहुचचित कहानियां: “इक नवां पैसा, (एक नया पैसा) 'बल्हड़वाल' 'अजांयब' तथा 'दुचितनंद । इन कहानियों की मनोव॑ज्ञानिक पक्ष सराहनीय है |
ज्ञानी जी की आरंभिक कहानियों में सम इच्छा" (सब ठीक है) एक जागरूक कलाकार की रचना प्रतीत होती है। एक घटना के बाद दूसरी घटना जैसे, कहानी
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के रसे में और वृद्धि करती जा रही हो । और जैसे कथानक जलाल की दुःखभरी मृत्यु की ओर धीरे-धीरे कदम बढ़ाता चल रहा है। यह सब कुछ किसी साधारण प्रतिभा के कलाकार के वश की बाद नहीं । इससे भी अधिक मनोरंजक यह तथ्य है कि लेखक यह दर्शाने में विशेष रूप से सफल होता हैं कि कैसे शब्दों का अंधा-धुंध इस्तेमाल उनको अर्थहीन बना देता है। जेल के चौकीदार के लिए सम इच्छा है, (सब ठीक है) : चाहे कोई कंदी बीमार पड़ा हो । गुरा, जिसे सात साल की कैद सुनाई गई है, उसके लिए भी 'सम इच्छा है ।” (सब ठीक है ) है। बृढ़ासिह के लिए भी जिसकी फांसी की अपील रह हो गई है । जेल के कमंचारियों के लिए 'सम इच्छा है” (सब ठीक है) उस समय भी जब कुछ दिन की बीमारी के बाद मृत्यु को प्राप्त हुए जलाल के शव को उसके संबंधियों के हवाले किया जा रहा होता है। यह कहानी पाठकों को हमारी जैलों की स्थिति के बारे में एक कभी न भुलाई जा सकने वाली झलक प्रस्तुत करती है ।
जहां तक शिल्प का संबंध है, बागी दी धी' (बागी की लड़की) एक अत्यन्त उत्कृष्ट कृति है । इस कहानी की सब से बड़ी खूबी यह है कि जो बात लेखक कहना चाहता है उसे इसमें एकसे अधिक कोणों से प्रकाश डाल कर दर्शाया गया है । बयान की किफायत का यह तकाजा था कि कहानी को जगह-जगह पर तोड़ा जाए और फिर आवश्यकतानुसार कड़ियों को चुन लिया जाए। और इस प्रकार उन्हें एक कलात्मक ढांचे में ढाल दिया जाए । 'मुसाफिर' के भीतर के कलाकार ने यह सब _ कुछ अत्यन्त सफलता पूर्वक निभाया है। यह अकारण नहीं है कि कहानी में एक सरकारी अफसर अपने रिश्तेदार की बेटी से यूँ जान छुड़ाता है जैसे वह कोई महा- मारी हो । और हस्पताल की जमादारिन हस्पताल के नियमों की अवहेलना करके बीमार लड़की की मां को मरीज से मिलाने के लिए ले जाती है। और इससे पहले कि वह अपनी आंखें हमेशा-हमेशा के लिए मूँद ले, बागी की बेटी अपनी मां को एक नजर देख लेने में सफल होती है । ऐसा लगता है जैसे वह मरीज लड़की मां की ही बाट देख रही थी । मां अन्तिम समय से एक क्षण भी पहले वहां नहीं पहुंच पाई । यह कहानी, एक ओर तो आजादी की लड़ाई में किसी देश भक्त के बलिदान का अद्वितीय वर्णन है, दूसरी ओर यह एक कुंवारी कन्या के हठ का चित्रण है। कैसे वह एक के बाद एक कष्ट सहती चली जाती है पर अपने मां-बाप को लज्जित नहीं होने देती । वह चुपचाप अकेली पड़ी मौत की घड़ियां गिनती रहती है, या ज्यादा-से- ज्यादा हस्पताल में छोटे-मोटे कमंचारियों से बातें कर लेती है ।
“रेशमी लीड” (रेशमी वस्त्र) नामक कहानी का विषय सामाजिक है। इस कहानी का मंतव्य सही अर्थों में अछूत-उद्धार है। कहानी के अंत में एक खूबसूरत मोड़ है। सिख बनने के बाद भी एक अछूत एक प्रकार सें अछत ही बना रहता
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है---गरीब और अनपढ़, अपनी हर जरूरत के लिए हाथ फैलाता हुआ। पर जौ लोग ईसाई धममं कबूल करते हैं, उन्हें पढ़ाया जाता है, प्रशिक्षण दिया जाता है और इस तरह उनको गरीबी से मुक्ति मिलती है। फिर उन्हें आवश्यकता ही नहीं रहती कि बाकी लोग उन्हें बराबर का समझें ।
कहानी “ठिब्बी जुत्ती” (पिचके हुए जूते) साधारण पाठक के लिए एक चुनौती है। जब गांव का नौजवान लड़का वराग्य उनके यहां आता है, मोची की लड़की अपने आपको कमरे में बंद कर लेती है क्योंकि घर में वह बिल्कुल अकेली है। लेकिन बन्द कमरे के झरोखे में-से उसे यह भी कहती है, बापू घर लौट आए तो जरूर आना नहीं तो फिर कभी नहीं बोलूंगी मैं तुम से । यह वही नूरी है जिसने एक बार दूध में आटा गूंध कर उसके लिए रोटी पकाई थी और वैराग्य यह बात भूल कर कि हिन्दू लोग मुसलसान के हाथ का पका हुआ नहीं खाया करते हैं, नूरी की रोटी खा लेता है । कई बरस बीत जाते हैं । पंजाब के बंटवारे ने न्री को विस्थापित कर दिया है। फिर एक बार तीथ॑-यात्रा के बहाने पाकिस्तान गया वैराग्य क्या देखता है कि नूरो रेलवे प्लेटफार्म पर खड़ी उसकी बाट देख रही है । नूरो की गोद में उसका बच्चा है। जिसकी शक्ल हृबहू वेराग्य जैसी है ।
“चुम्मी दे चोर” (बोसा चोर) जैसी कहानियों में जो बात मुझे महत्वपूर्ण लगती है, वह है ज्ञानी गुरुमुखर्सिह 'मुसाफिर' की विशाल हृदयता जो एक स्वतंत्रता सेनानी में ही संभव है । उसकी दृष्टि संकुचित नहीं है। कुछ राजनीतिक कार्यकर्ता यह मानने से इंकार करते हैं कि हमारे बीच जो खाते-पीते कुछ लोग हैं वे भी देश-सेवा कर सकने में सक्षम हैं तथा उनसे किसी प्रकार के बलिदान की आशा भी की जा सकती है। अगर कोई किसी खास खानदान में पंदा हो गया है तो उसे हमेशा-हमेशा के लिए बेकार समझा जाने लगता है। ठाकुर जनकराजसिंह रईस हैं पर एक भलामानस रईस । उसका इकलौता बेटा देश की आजादी की लडाई में कद पड़ता है। उसके साथी क्रांतिकारी हैं। यह सब कुछ उसके पिता की जानकारी में है। जब भी पिता को अवसर मिलता है, वह हर संभव प्रयत्न करता हैं कि उसका पुत्र अपना संघर्ष जारी रखे ।
'मुसाफिर' जी की कहानियों को दुबारा पढ़ते हुए मुझे ऐसा लगता हैं मानो उनको पहले लिखी हुई कहानियाँ बाद में लिखी कहानियों से कहीं ज्यादा अच्छी हैं । उन कहानियों की गठन भी सुरुचिपूर्ण है, कथा-पक्ष भी अथेपूर्ण है। ऐसा प्रतीत होता है कि अस्वाभाविकता या बनावट का ज्ञानी जी से दूर का संबंध भी नहीं था । वे तो एक सीधे-सादे और ईमानदार साहित्यकार थे ।
प्रिन्सिपल तेजासि]ह ने 'मुसाफिर' जी की कहानी-कला के बारे में इस तरह के विचार प्रकट किए हैं : “गुरुमुखसिंह को जीवन का विशाल अनुभव था। इस अनुभव के आधार पर ही वह अपनी कहानियां लिखता है। बहुरंगी लेखनी से
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महान कष्टों को वरणित करता है। और इससे वे कागज जिस पर उन्हें वह अंकित करता है, फट-फट जाते हैं ।” ह
निःसन्देह ज्ञानी जी की कहानियों का क्षेत्र विशाल है। उनकी कहानियों में आजादी की लड़ाई का जिक्र है। सामाजिक समस्याओं की चर्चा है, हिन्दू-मुस्लिम एकता का वर्णन है, देश का बंटवारा और उसकी दुखभरोी यादें उनमें अंकित हैं, शरणार्थी और उनके पुनर्वास के किस्से हैं, आजादी और उसके बाद के आजाद भारत की सफलताओं और असफलताओं का बखान है, और फिर स्वं-साधारण का चित्रण है, आम आदमी की दैनिक समस्या, उसके सपने और उसकी आशा-निराशा कहीं ज्ञानी जी बातचीत कर रहे होते हैं, कहीं वे मनोवैज्ञानिक शेली अपनाते हुए, अपने पात्रों के भीतर गहरे उतर कर उनके अन्तःस्थल में बंठ जाते हैं। कहीं वे कोई रेखा-चित्र प्रस्तुत करके ही सन्तुष्ट हो जाते हैं। कहीं उनकी कहानी की विशेषता उस वातावरण में है जिसका वे सफलतापूर्वक चित्रण करते हैं। इसके अतिरिक्त ज्ञानी जी ने ऐसी कहानियां भी लिखी हैं जिनमें कोई कहानी नहीं है । ज्ञानी गुरुमुख सिंह “मुसाफिर' की कहानियों की प्रमुख विशेषता वह संदेश है जो अपनी कहानियों के माध्यम से वे देते हैं। हर कहानी के पीछे कोई विशेष भावना रहती है, कोई विशेष विचार होता है, चाहे वह प्रत्यक्ष रूप में वणित हो या संकेतिक ।
कहानी के क्षेत्र में ज्ञानी जी चाहे बाद में आए लेकिन कहानी-कला के साधनों का प्रयोग करने का कौशल उनको खूब अच्छी तरह आता था । उन्होंने कहीं नाटकीय शैली अपनायी तो कहीं प्रतीकात्मका, कहीं व्यंग है तो कहीं कुछ और । वे कई साधनों का बड़ी कुशलता से उपयोग करते हैं। ज्ञानी गुरुमुखर्सिह 'मुसाफिर' ने सचमुच कुछ कमाल की कहानियां लिखी हैं जिनके कारण कहानीकार के रूप में वे चिरकाल तक याद किए जाते रहेंगे ।
कहानी चाहे उनकी सृजनात्मक प्रक्रिया का प्रिय अंग बन गई पर जंसा पहले कहा गया है, ज्ञानी जी ने अपना साहित्यिक जीवन एक कवि के रूप में आरंभ किया था । अपनी जवानो के दिनों में वे गुरु के बाग के मोर्चे के लिए पोठोदार से एक जत्था लेकर अमृतसर आए । इससे पूर्व की जत्था गुरु के बाग पहुंचता जहां पहले उनकी पिटाई होती, और फिर उन्हें जेल भेजा जाता, ज्ञानी जी ने अकाल तख्त अमृतसर दीवान में एक कविता पढ़कर सुनाई । अकाल तख्त पर जत्थों को तैयार किया जाता था और उन्हें आवश्यक निर्देश दिए जाते थे । ज्ञानी जी की कविता सुन कर मो के नेताओं पर इतना प्रभाव पड़ा कि फैसला यह किया गया कि नवयुवक ज्ञानी गुरुमुख मुसाफिर को जत्थे के साथ न जाने दिया जाए ।। गुरु के बाग में तो उनकी पिटाई ही होती, और फिर काटनी पड़ती उन्हें जेल । जेल से बाहर रह कर उनसे ज्यादा अच्छा काम लिया जा सकता था। ज्ञानी जी को
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मजबूरन जत्थेदार